सुरकंडा देवी मंदिर कहाँ है?
सुरकंडा मंदिर टिहरी गढ़वाल के जौनपुर क्षेत्र में स्थित सिरकुट पर्वत पर स्थित है , सुरकंडा मंदिर उत्तराखंड के पर्यटक स्थल धनोल्टी से 8 किलोमीटर और चम्बा से 22 किलोमीटर दूर है | सुरकंडा मंदिर की चढाई कद्दूखाल से 3 किलोमीटर है | बेहद सुन्दर वातावरण में यह मंदिर उपस्थित है, चारो ओर हरियाली और बर्फ से ढके पहाड़ इस जगह को मंत्र मुग्द कर देते है, सुरकंडा मंदिर के नीचे कद्दूखाल में सुन्दर सुन्दर कैंपिंग और होमस्टे के विकल्प भी मिल जाते है जहाँ आकर आप माँ के दर्शन बड़ी आसानी से कर सकते है| इस मंदिर से जुडी अनेको अद्भुद और रोचक कहानिया है जिनमे से सभी कहानियो एवं मान्यताओं के बारे में इस ब्लॉग में बात की जाएगी
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सुरकंडा देवी कौन है?
माँ सुरकंडा सती का ही रूप है कहा जाता है यहाँ माता सती का सर गिरा था जिस वजह से इस मंदिर का नाम सुरकंडा पड़ा , यह मंदिर 51 शक्तिपीठो में से एक बेहद खूबसूरत शक्तिपीठ है , पौराणिक मान्यताओं के अनुसार राजा दक्ष ने कनखल में एक बहोत बड़ा यह हवन करवाया था , उसमे ब्रह्माण्ड के समस्त देवी देवता , यक्ष , गन्धर्व , किन्नर सबको बुलाया था , केवल शिव और सती को निमंत्रण नहीं भेजा क्युकी वो भगवान् शिव से नफरत करते थे , लेकिन माँ सती को अपने पिता के उस यज्ञ में जाने की इच्छा जताई लेकिन भगवान् शिव ने मना कर दिया लेकिन माँ सती भी हट करके वहां चली गयी, लेकिन वहां जाने के बाद किसी ने भी उनका आदर सत्कार नहीं किया सिवाय उनकी माँ के. फिर जब वो यज्ञ स्थल पर पहुंची तो देखा की सभी देवताओ का उस यज्ञ में स्थान था लेकिन शिव का नहीं तब माँ सती ने अपने पिता दक्ष से स्थान न होने का कारन पूछा , दक्ष ने भी शिव को भरी सभा में अपमानित किया , और माता सती अपने पति का अपमान सहन नहीं कर पाई , और हवन में कूद कर अपने शरीर का त्याग कर दिया , जैसे शिव तक इस घटना की जानकारी पहुंची उन्होंने वीरभद्र का रूप धारण कर पूरे यज्ञ को विध्वंश कर दिया , और माता सती के अधजले शरीर को अपने त्रिशूल में उठा कर पूरे ब्रह्माण्ड में विचरण करने लगे , ये देख सभी देवता परेशां हो गए और विष्णु जी से मदद मांगी , तब जा कर भगवान् विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से माता सती के शरीर को 52 हिस्से में विभाजित कर दिया और वो हिस्से भारत के अलग अलग कोने में गिरे सर का हिस्सा सिरकुट पर्वत पर गिरा जिसकी वजह से वो जगह एक शक्तिपीठ कहलाई .
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सुरकंडा मंदिर की खोज कैसे हुई ? (History Of Surkanda Temple)
कहा जाता है की इस मंदिर की सर्वप्रथम खोज जरधार गांव के आनंद सिंह जड़धारी द्वारा की गई थी। उस समय पहाड़ के लोग देहरादून "माल" से भारी सामान पीठ पर लादे आ रहे थे कि रास्ते में उन्हें एक असहाय वृद्धा मिली, उसने कहा कि मुझे भी अपने साथ ले चलो लेकिन कोई राजी नहीं हुआ। आनंद सिंह जड़धारी दयालु प्रवृत्ति का था, उसने उस असहाय वृद्धा को अपनी पीठ पर लादे सामान के ऊपर बिठा दिया और हिम्मत के साथ आगे चलता गया। काफी दूर चलने के बाद जब वह कुछ देर विश्राम के लिए रुका तो इतने में वृद्ध महिला अंर्तध्यान हो गई। घर पहुंचने पर आनंद
सिंह जड़धारी को उस वृद्ध महिला ने स्वप्न में देवी के रूप में दर्शन दिए और कहा कि
तुम सबसे ऊंची धार में खुदाई करना, खुदाई से उस स्थान पर स्वयंभू दिव्य शिला प्रकट हुई,
जिसे जड़धार गांव वासियों ने वहाँ पर मंदिर बना कर स्थापित किया। तब मां ने कहा जड़धारी वंश
मेरा मैती कहलाएगा। तब से जड़धारी लोग देवी के मैती के रूप में मंदिर का प्रबंधन व सेवा
करते आ रहे हैं। जड़धार गांव के लोग हर तीसरे वर्ष मां को चैत्र नवरात्र के मौके पर अपने
मायके जड़धार गांव बुलाते हैं। ढोल नगाड़ों के साथ साथ मां की चल प्रतिमा को जड़धार
गांव के लोग सिर पर रखकर नंगे पांव करीब 16 किलोमीटर की पैदल दूरी तय कर लाते
हैं। नवरात्र पूर्ण होने के बाद मां को वापस सुरकुट पर्वत के लिए नम आंखों से मंदिर तक
विदा किया जाता है। यह परंपरा आदि काल से चली आ रही है। जड़धारी वंश मां की भेंट व
चढ़ावे आदि का हकदार नही है। पुजाल्डी के लेखवार माँ के पुजारी हैं। पूजा व दक्षिणा के
हकदार वही हैं।, और मालकोट के लोग देवी के मामा कहलाते हैं।
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आजकल मां सुरकंडा की डोली बनाकर उसे जगह-जगह नचाने का जो कार्यक्रम चल रहा है, उसका सिद्धपीठ सुरकंडा मंदिर से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से किसी भी तरह का संबंध नहीं है। क्योंकि मां सुरकंडा की तो डोली ही नहीं है। जो लोग मां सुरकंडा के नाम पर डोली नचाने का कार्यक्रम कर रहे हैं, वह गलत है। उन्हें आगाह किया जाता है कि वह ऐसा कृत्य ना करें और तत्काल इसे बंद कर दें। आप ऐसे लोगों के झांसे में ना आएं।